Wednesday, April 25, 2012

कोर कमेटी है या 'चोर कमेटी'


   चोर कई तरह के होते हैं। जैसे चप्पल चोर, पर्स चोर, आभूषण चोर आदि। सब चोरी करते हैं। इनके चोरी करने के तरीके भी अलग-अलग होते हैं। लेकिन कुछ चोर अलग किस्म के होते हैं। बिल्कुल टीम अण्णा से निकाले गए मुफ्ती शमीम काजमी और स्वामी अग्निवेश की तरह। ये ऐसे चोर होते हैं जो हमारे जज्बातों, बयानों और हमारी योजनाओं की चोरी करते हैं। स्वामी अग्निवेश ने भी जनता की भावनाओं को चोरी कर सरकार को सारी बात बताई और आन्दोलन कमजोर किया। कुछ ऐसा ही मुफ्ती शमीम काजमी कोर कमेटी की बैठक में मोबाइल से रिकार्डिंग कर कर रहे थे। काजमी, अग्निवेश बातें चोर हैं! जो बातें चुराकर दूसरों को बेचते थे!
    चोर कोई भी हो, वह जब भी पकड़ा जाता है, हमेशा यही कहता है कि मैंने चोरी नहीं की। ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार काजमी ने कहा कि मोबाइल में रिकार्डिंग का बटन धोखे से दब गया होगा। उन्हें रिकार्डिंग करना आती नहीं। भले ही उनके मोबाइल में रिकार्डिंग की क्लीपिंग हों। एक बात यह भी है कि चोर कभी भी अपने आपको चोर कहलवाना पसंद नहीं करता। बेचारा वह भला आदमी कबसे कह रहा था कि मुझे रिकार्डिंग करना आती ही नहीं लेकिन कमेटी के सदस्यों ने उनकी एक न सुनी। सीधे बाहर निकाल दिया। ये गलत बात है!
      ऐसा लगता है टीम अण्णा को एक बैठक बुलाकर अपनी कमेटी का नाम बदलना चाहिए। टीम अण्णा को अपनी कोर कमेटी का नाम बदलकर  इसे कोर की जगह 'चोर' कमेटी कर देना चाहिए। क्योंकि इसके दो कारण है। एक तो यह कि पिछले एक साल में ही 25 लोगों की इस कमेटी से स्वामी अग्निवेश और काजमी जैसे 2 चोर बाहर हो चुके हैं। दूसरा यह है कि 'चोर' शब्द का टीम अण्णा से गहरा नाता है। मनीष सिसौदिया ने 'चोर की दाढ़ी में तिनका' मुहावरे का प्रयोग करके पहले भी फहीजत कर दी थी। और अरविन्द केजरीवाल भी देश के सांसदों को 'चोर', लुटेरे और हत्यारे की संज्ञा देकर काफी बदनामी करा चुके हैं.
     अण्णा हजारे कई बार अनशन कर चुके हैं। कई बार अपनी बात को भी मनवा चुके हैं। कई लोगों की बात भी मानते हैं। लेकिन मेरी बात न मानते हैं, न ही सुनते हैं। सरकार भले ही झूठे आश्वासन देकर अनशन तुड़वा देती है लेकिन उनकी टीम तो कहीं का न छोड़ेगी। इसलिए मेरी बात मान लें तो अच्छा है। कब से चिल्ला रहा हूं कि...भ्रष्टाचार हमारी रग-रग में समा चुका है। देश आज नहीं तो कल सुधर ही जाएगा। लेकिन पहले अपनी टीम को ही सुधार लो....।

Wednesday, April 18, 2012

अपमान हुआ तो क्या हुआ... सम्मान तो हुआ

            बहस करना अच्छी बात है। बेकार की बहस यानी बेकार की बात। इसलिए बेकार की बहस कभी नहीं करना चाहिए। लेकिन हमारे पड़ौसी गुप्ता जी हैं कि मानते ही नहीं। सुबह-सुबह घर आ गए। पूछने लगे, न्यूयार्क जाना है कितना समय लगेगा। मैंने उनको बताया कि न्यूयार्क भारत से 12 हजार से अधिक किलो मीटर दूर है। हवाई यात्रा होती है। 12 घण्टे तो लगते ही होंगे। हां! शाहरूख खान के साथ जाओगे तो 2 घण्टे एक्स्ट्रा जोड़ लेना। अमेरिका वाले शाहरूख की जबरदस्त तलाशी लेते हैं। मुझे तो लगता है कि शाहरूख को अमेरिका जाना ही नहीं चाहिए।
          बस क्या था, शुरू हो गई बहस। गुप्ता जी बोले, हां आप तो ऐसा बोल सकते हो, क्योंकि शाहरूख के बारे में कुछ जानते ही नहीं। शाहरूख को अमेरिका क्यों नहीं जाना चाहिए? उनको वहां सम्मान मिलने वाला था। सम्मान, सम्मान होता है। चाहे इसके लिए अपमान होना हो तो हो जाए। क्या पता ''कल हो न हो''। वैसे भी अपमान को कौन याद रखता है, सम्मान तो हमेशा याद रखे जाते हैं। आप तो जानते ही नहीं इस ''बाजीगर'' को कितने सम्मान मिल चुके हैं।
         ''ओम शांति ओम'' करते-करते शाहरूख 14 फिल्मफेयर और 8  बार सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार जीतकर ''बादशाह'' बन चुके हैं। सिनेमा में उनके योगदान के लिए हमने उन्हें 2005 में पद्श्री भी प्रदान किया। लेकिन इतने सम्मानों से क्या होता है! हमें तो अमेरिका का भी सम्मान चाहिए। अब आपको क्या मालूम, अमेरिका के येल विश्वविद्यालय पहुंचने से पहले शाहरूख की तलाशी तो हुई लेकिन इसी विश्वविद्यालय में उन्हें विश्वविद्यालय का सर्वोच्च सम्मान ''चब फेलोशिप'' भी मिला था।
          आप देखना अब भूल जाएंगे कि अमेरिका में दो बार शाहरूख की जबदस्त तलाशी ली गई। सब भूल जाएंगे कि शाहरूख को कपड़े उतारकर तलाशी देना पड़ी। भाई साहब! ''कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है''। वैसे हमने इस घटना के बाद बहुत कुछ पाया भी है। अमेरिका ने शाहरूख का अपमान किया लेकिन शाहरूख को सम्मान मिला और हमें अमेरिका पर दबाव बनाने का मौका। आपने देखा नहीं क्या! हमारे विदेश मंत्री ने अमेरिका पर कितना दबाव बनाया। माफी तक मांगवा ली। वैसे अमेरिका पर हम दबाव कब बना पाते थे। लेकिन शाहरूख का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि वह बार-बार हमें ऐसा मौका देता है। भारतीय सम्मान कितने भी सम्मान से दिए जाएं कहां फर्क पड़ता है। हां! अपमान के बाद मिला सम्मान हमेशा याद रखा जाता है। इसलिए शाहरूख जितनी भी बार अमेरिका जाना चाहे जा सकते हैं। क्यों सही कहा न...।
          हां! गुप्ता जी आप सही कहते हैं। वैसे आप न्यूयार्क क्यों जा रहे हो? अरे! यह तो बताना ही भूल गया। न्यूयार्क में मुझे भी सम्मान मिलने वाला है। देखना मेरी भी तलाशी हुई तो सम्मान तो लेकर आऊंगा ही और माफी भी मंगवा लेंगे अमेरिका से.....।

Tuesday, April 10, 2012

हम और कितनी करें कार्रवाई साहब !

          
              अमेरिका की पत्रिका फोब्र्स यदि दुनिया के सबसे भोले आदमी का पता लगाए तो मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि वह भारत के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के सिवा कोई दूसरा हो ही नहीं सकता! वैसे तो उनके भोलेपन के कई किस्से देशवासियों ने सुने और देखे हैं लेकिन अभी हाल में जो देखा, वह उनके भोलेपन की गुणवत्ता को और अधिक बढ़ा देता है। लगता है वह भोलेबाबा बनने की कोशिश कर रहे हैं!
           भगवान भोलेनाथ भी भोले थे। लेकिन इतने भी नहीं थे कि गुस्सा न आए। उनकी जब तीसरी आंख खुलती थी तो सामने वाला राख हो जाता था। लेकिन हमारे भोलेबाबा की भी अच्छी भली दो आंखें हैं। लेकिन परेशानी यह है कि यह हमेशा बंद रहती हैं। जब हमारे देश में अरुणाचल प्रदेश की जमीन पर कब्जा करने वाले चीन के राष्ट्रपति हू जिंताओ आते हैं  तब भी और देश में आतंकवादी हमले कराने वाले पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी आते हैं, तब भी।
             हमारे प्रधानमंत्री के भोलेपन के बारे में राष्ट्रपति जरदारी भी पहले नहीं जानते थे। लेकिन भारत आने पर नई दिल्ली में चालीस मिनट तक चर्चा के बाद उन्हें भी समझ में आ गया। राष्ट्रपति जरदारी ने जब उनसे भारत और पाकिस्तान के संबंध मधुर बनाने की बात कही तब प्रधानमंत्री ने भी उतनी ही मधुरता से जवाब दिया कि 'आप दुश्मनों पर कार्रवाई करो तभी दोस्ती होगी।' उनकी इस बात जरदारी जयपुर से पाकिस्तान जाने तक मुस्कुराते रहे।
               हालांकि मैं उस बैठक में नहीं था। लेकिन जिस प्रकार जरदारी मुस्कुरा रहे थे जो उसको देखकर यह जरूर कह सकता हूं कि प्रधानमंत्री की इस बात पर जरदारी ने पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा होगा कि- मनमोहन सिंह जी आप बड़े ही भोले हैं। क्या आपको अभी भी नहीं पता कि हम दुश्मनों के खिलाफ कितनी कार्रवाई करते हैं।
             पाकिस्तान तो अपने दुश्मन के खिलाफ हमेशा कार्रवाई करता रहा है। अब आप ही देख लो हमने अपने आतंकवादियों द्वारा आपकी संसद को निशाना बनाया। मुम्बई में 26  नवम्बर 2008  को कसाब जैसे आतंकवादी की टोली भेजी थी! आप भूल गए क्या पिछले वर्ष 7 सितम्बर 2011 को हमने संसद से मात्र डेढ़ किलो मीटर दूर दिल्ली हाईकोर्ट के बाहर धमाका करके 15 लोगों को मारा था।  अरे यह तो पता होगा कि 13 जुलाई 2011 को मुम्बई में श्रृंखलाबद्ध धमाके कर 21 लोगों को मारा तथा 131 लोगों को घायल किया था। आपकी धार्मिक नगरी वारणासी पर भी हमने 7 सितम्बर 2010 को हमला किया था। भूल गए क्या? इस धमाके में एक बच्ची की मौत हुई थी और 25 लोग घायल हुए थे। हमारी कार्रवाई का अंदाजा आप इस बात से भी लगा सकते हैं कि हमने अपने आतंकवादी भेजकर मुम्बई, दिल्ली, अजमेर, हैदराबाद, जयपुर, अहमदाबाद, बंगलौर, वाराणासी, महाराष्ट्र, जम्मू कश्मीर, असम और मालेगांव और न जाने कहां कहां धमाके कराए हैं।
              आपके सख्त गृहमंत्री पी. चिदंबरम के कार्यकाल में ही चार वर्ष में हमने आठ बड़े आतंकवादी हमले किए। इसमें हमने 50 से ज्यादा लोगों  को भी मौत के घाट उतारा है।
             अरे मनमोहन जी अब तो आप विश्वास करिए न, कि हम दुश्मनों के खिलाफ कितनी कार्रवाई करते हैं। अब आप ही बताइए हम और कितनी कार्रवाई करें? और आप तो हमारी छोडि़ए अपनी बताइए। आपने अपने दुश्मनों पर कितनी कार्रवाइयां की हैं। आपने तो अफजल और कसाब को  अभी तक पाल पोस रहे हैं। आप तो कुछ कार्रवाई करते नहीं हो और हमसे कह रहे हो। चलो छोड़ो...अब तो दोस्त बन जाइए!

Monday, April 2, 2012

मुँहवाद कराने वाले मुहावरे



           आज हिन्दी की मैडम की बहुत याद आ रही है। उनकी याद आने का कारण यह है कि उन्होंने मुहावरों का प्रयोग करना तो बता दिया लेकिन इनका प्रयोग कहां करना है और कहां नहीं करना है, यह नहीं बताया! मुझे लगता है कि टीम अण्णा के सदस्य मनीष सिसौदिया की मैडम ने भी उन्हें ठीक ढंग से मुहावरों का प्रयोग करना नहीं सिखाया। अगर सिखाया होता तो वह कभी भी संघर्षशील, लग्नशील जैसे राजनेता शरद यादव के लिए 'चोर की दाढ़ी में तिनका' वाले मुहावरे का प्रयोग नहीं करते!
            इस एक मुहावरे के कारण संसद में सांसदों ने कितना हो हल्ला किया यह हमने देखा। मुलायम सिंह यादव, लालू प्रयाद यादव, संजय निरुपम, सुषमा स्वराज जैसे लगभग सभी सांसदों ने इस मुहावरे पर काफी गुस्सा किया। गुस्सा व्यक्त कर टीम अण्णा को चेतावनी दी गई कि वे संसद और सांसदों की मर्यादाओं का सम्मान करें।
           देश में तरह-तरह के कानून बनाने वाले इन नेताओं की चेतावनी को हवा में नहीं उड़ाना चाहिए। भोलीभाली जनता को सावधान रहने की जरूरत है। इसलिए आप भी सावधान हो जाइए। मैं भी हो चुका हूं। टीम अण्णा के सदस्य मनीष सिसौदिया से यही कहना है कि अब वे कभी भी 'चोर की दाढ़ी में तिनका' वाले मुहावरे का प्रयोग न ही करें तो अच्छा है। इस मुहावरे के प्रयोग से हमारे सांसदों का अपमान होता है।
          लेकिन मनीष सिसौदिया को भी निराश होने की जरूरत नहीं है। क्योंकि 'चोर' शब्द का मुहावरा एक ही थोड़े ही है। हमारे पास तो ऐसे ढेरों मुहावरे और लोकोत्तियां हैं जिनका प्रयोग होते हमने कई बार अनुभव भी किया है और देखा भी है।
           इसी प्रकार एक और मुहावरा है- 'चोर-चोर मौसेरे भाई'। इस मुहावरे का अर्थ होता है कि दो चोर एक दूसरे के भाई जैसे होते हैं। ठीक  उसी प्रकार जिस प्रकार संसद में सभी भाई-बहन की तरह इकट्ठा हो गए थे और इकट्ठा होकर टीम अण्णा के खिलाफ संसद की गरिमा को याद दिला रहे थे। लेकिन संसद की गरिमा उस वक्त कहां जाती है जब सांसद एक-दूसरे के प्रति अभद्र भाषा का इस्तेमाल करते हैं, कुर्सियां और माइक तोड़ा जाता है। लोकसभा की आसंदी को घेरा जाता है।
           अगला मुहावरा 'उल्टा चोर कोतवाल को डांटे' भी है। अब देखो न, एक तो कालाधन वापस नहीं ला रहे, भ्रष्टाचार के खिलाफ जनलोकपाल बिल नहीं ला रहे, आतंकवादियों से सुरक्षा नहीं हो रही, महंगाई पर अंकुश नहीं है, बल्कि उल्टा जनता को ही सबक सिखाया जा रहा है। विरोध करने पर लाठियों से पीटा जा रहा है।
          'चोरी और सीना जोरी' भी इसी तरह का एक मुहावरा है। एक तो देश में इतने बड़े-बड़े घोटाले हो रहे हैं दूसरी ओर जो घोटालों को उजागर कर रहे हैं उन्हें ही मुल्जिम की तरह संसद में लाने की बात हो रही है। यह कैसे चलेगा? यह तो 'चोरी और सीना जोरी' ही हुई ना?
          चोर कहीं भी रह सकता है। एक चोर ऐसा भी होता है जो दिल में रहता है तब उसे कहा जाता है 'दिल में चोर होना'। हम जानते हैं कि हमारे सांसद जनलोकपाल बिल और कालाधान वापस लाने में इतनी उदासीनता क्यों बरत रहे हैं। क्योंकि उनके लिए भी दिल में एक चोर बैठा है, जो कब भागेगा पता नहीं।
दोषी व्यक्ति अपने आप फंस जाता है। जब इस बात को कहना हो तो कहते हैं 'चोर के पैर पोले' मुहावरे का प्रयोग किया जाता है। कई बार देखने में आता है कि सुरेश कलमाड़ी, ए.राजा जैसे नेता जेल की हवा खा चुके हैं, अगर इनके पैर पोले नहीं होते तो कितना अच्छा होता।
          इसी प्रकार कई और मुहावरें और लोकोत्तियां भी हैं जिनका प्रयोग भी हम कभी भी कर सकते हैं। जैसे- 'चोर चोरी से जाए-हेरा फेरी से न जाए','चोरी का धन मोरी में', 'ककड़ी के चोर को फांसी नहीं दी जाती' और धोबी के घर पड़े चोर, वह न लुटा लुटे और
           अब सोच रहा हूं कि हिन्दी वाली मैडम मिल जाएं तो एक बार पूछ लूं कि क्या इन 'चोर' शब्द वाले मुहावरों का प्रयोग हम सार्वजनिक मंच पर कर सकते हैं? इन मुहावरों से हमारे देश के कर्णधारों के दिल पर, दिमाग पर ठेस तो नहीं पहुंचेगी। कहीं हमारे संर्घषशील, जुझारू, विद्वान राजनेता नाराज तो नहीं हो जाएंगे। मैं तो मैडम को ढूंढऩे की कोशिश कर ही रहा हूं, अगर आपको मिल जाएं तो कृपया पूछकर मुझे अवश्य बताएं।