भारत जितनी तेजी से तरक्की कर रहा है, उसको देखकर मैं निश्चिततौर पर कह सकता हूं कि भविष्य में केवल दो ही प्रकार के लोग सुखी रह सकेंगे। पहले वे लोग जिनके बैंकों में खाते हैं, दूसरे वे लोग जो हर काम के लिए 'खाते' हैं। बाकी बचे लोग दिमाग खाने वाले होंगे। सरकार को ही देख लो। सीधे खाते में 'सब्सिडी जमा करने' की योजना बना रही है।
वैसे सरकार का क्या है वह तो शुरु से ही 'खाने' और 'खिलाने' में उस्ताद है। किसी भी नेता को कोई भी मंत्रालय दे दो काम करते-करते इतना 'खाते' हैं कि स्वीटजरलैण्ड में 'खाता' खुलवाना पड़ता है। बाबा रामदेव सरीखे लोग विदेशी खातों में जमा धन को भारतीय खाते में लाने के लिए आंदोलन करते हैं तो उनके खिलाफ इतना जबरदस्त मोर्चा खोल दिया जाता है कि उनके खाते बंद करने की नौबत आ जाती है। बेचारे अण्णा हजारे को ही लो। अण्णा ने कई दिन तक खाना छोड़ दिया लेकिन कुछ लोग इतने बेशर्म निकले कि उन्होंने अभी तक 'खाना' नहीं छोड़ा।
'खाने' और 'खिलाने' की भी एक सीमा होती है। लेकिन सरकार की सीमा का तो पता ही नहीं लगता। सरकार गिरने की नौबत आती है तो सांसदों को 'खरीदा' और 'खिलाया' जाता है। प्रधानमंत्री भी कई बार अपने निवास पर निमंत्रण देकर 'खिलाते' हैं।
समय भी धीरे-धीरे बदल रहा है। सब हाईटेक हो रहे हैं। टेक्नोलॉजी से हर बात को 'टेकल' किया जा रहा है। खाता होने से कुछ लोगों का 'खाना' भी आसान हो रहा है। अधिकारी, अब सीधे खाते में 'खिलाने' की बात करने लगे हैं। सरकार जिस प्रकार की योजनाओं बनाकर सीधे खाते में पैसा जमा कराने पर अड़ी हुई है उससे अब डर यह लगने लगा है कि कहीं खातों में 'खाते-खाते' कहीं हमारा हाजमा न बिगड़ जाए। मुझे तो लगता है कि भविष्य में खाते का इतना महत्व हो जाएगा कि सबसे गरीब व्यक्ति वही होगा जिसका किसी बैंक में 'खाता' न हो। सरकार के लिए आम आदमी भी वही होगा जिसके पास भले रहने के लिए घर, पहनने के लिए कपड़े और पेट भरने के लिए भोजन न हो लेकिन 'खाता' जरुर होना चाहिए या फिर वह किसी वोट बैंक के खाते में कहीं न कहीं फिट बैठता हो। सच बताऊं तो मुझे सबसे अधिक चिंता इस बात की है कि मेरा क्या होगा। क्योंकि न तो अभी तक मेरा किसी बैंक में कोई 'खाता' है और न ही मुझे 'खाना' आता है।
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