एक दिन मैं संसद जा पहुंचा। चुनाव जीतकर नहीं, तिकड़म से। हालांकि दोनों में ज्यादा अंतर नहीं है। तिकड़मबाजी नेताओं को पहले करना पड़ती है, मैंने बाद में की। नेता यहां गूंगी जनता की आवाज बनकर शोर मचाने आते हैं। मैं तो केवल घूमने के लिए ही आया था। जिस दिन मैं पहुंचा था, उस दिन शीतकालीन सत्र का आखिरी दिन था। हर दिन की तरह आखिरी दिन भी जब विपक्ष ने संसद नहीं चलने दी तो सत्ता पक्ष के नेता शीतकाल होने के कारण धूप में खड़े थे। खैर, मैं तो लोकसभा में पहुंच गया था। बड़ा सा हॉल था, जो बिल्कुल खाली था। मैंने पूरे हॉल की खूबसूरती को निहारा। उसे देखकर मैं जा ही रहा था कि मेरा कुर्ता एक कुर्सी में फंस गया। मुझे लगा जैसे उसने मुझे रोक लिया हो। अचानक वह कुर्सी बोल भी पड़ी-आप कौन? पहले तो मैं घबराया, लेकिन संसद की कुर्सी मुझसे बात कर रही थी इसलिए मुझे रुकना पड़ा। नेताओं की बात अलग है। वो तो कुर्सी मिलते ही सब भूल जाते हैं। कुर्सी बहुत उदास थी। मुझसे उसने पूछा-आप कहाँ से आए हो? आप कौन हो? क्या आप जनता हो? मैंने हां कहा और बताया कि मैं ग्वालियर से संसद भवन घूमने आया हूँ। मेरी इस बात पर वह जोर से हँसी और बोली-आप भी घूमने आए हो। मैंने कहा-आप भी मतलब! कुर्सी ने कहा- आप भी मतलब, आप जिन्हें चुनकर भेजते हैं, वे भी घूमने ही आते हैं! आज शीतकालीन सत्र भी समाप्त हो गया, कुछ काम नहीं किया इन नाकारों ने। इतना शोर करते हैं कि हमारे कान पक जाते हैं। कुछ तो इतने बेशर्म होते हैं कि हमारे ऊपर ही चढ़कर चिल्लाने लगते हैं। कभी किसी की लड़ाई हो जाए तो वो कमबख्त हमें उठाकर लड़ने लगते हैं। हमें बहुत दुःख होता है। हमसे अच्छी तो प्राइवेट ऑफिसों की कुर्सियां हैं। उन पर मैनेजर, मालिक, डायरेक्टर जैसे पढ़े-लिखे लोग आकर बैठते भी हैं और काम भी करते हैं। हमारे ऊपर तो कोई भी अनपढ़, पांचवीं, छटवीं पास, हत्या और लूटपाट का आरोपी, सफेद कुर्ते में काला चोर जैसा लफंगा नेता आकर कभी भी बैठ सकता है। हालांकि सभी बुरे नहीं होते। कुछ की क्वालिटी अच्छी भी होती है। कुर्सी बोली-आज हम किसी फौजी अफसर की कुर्सी होते तो हमारा सीना गर्व से चौड़ा होता। कहीं किसी गरीब के घर में ही होते तो वहां हमारा अच्छे से ख्याल रखा जाता। हमारी तो किस्मत ही फूटी है, जो हम यहां हैं। हमारी गरिमा तो है, लेकिन आप जिन्हें चुनकर भेजते हैं वे हमारी गरिमा की ऐसी की तैसी कर देते हैं। हमारा यहां दम घुटता है। लेकिन हम क्या करें,मर्यादा में रहना पड़ता है। मर्यादा ही हमें बांधे हुए है। जबसे हम कुर्सियों को यहां लाया गया है, तब से चुप हैं। भगवान जाने...कब तक चुप रहना पड़ेगा। कोई तो दिन ऐसा आए, जिस दिन आप लोग कहें कि संसद ने आज अच्छा काम किया है। कुर्सी पर बैठने वाले नेता कब आएंगे? मित्रों, मैं उस मर्यादित कुर्सी से क्या कहता, चुपचाप चला आया। -सुमित राठौर